गीता सार | धर्म क्या है?

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गीता सार | धर्म क्या है?

धर्म की कई परिभाषाएं है।  परन्तु आधुनिक जगत की परिभाषा अलग सी हो गई है।  आज कल धर्म को religion मानते है। जोकि पूर्णतः सही नहीं है। क्योंकि धर्म का विलोम अधर्म होता है जिसे हम non-religion या anti-religion नहीं कहते है। इससे ये तो समझ में आता है कि वर्तमान में हम धर्म को religion तो नहीं बोल सकते। 

अब प्रश्न ये उठता है कि फिर धर्म क्या है? 

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || 4.13||

व्यवसायों कीचारश्रेणियांलोगोंकेगुणोंऔरगतिविधियोंकेअनुसारमेरेद्वाराबनाईगईथीं।
यद्यपि मैं इस प्रणाली कानिर्माताहूं,
परन्तु मुझे इस व्यवस्था केपरे, गैर-कर्ताऔरशाश्वतसमझनाचाहिये


आइए इसे ऐसे समझते है। ईश्वर ने मनुष्य को बनाया और उसके कर्तव्यों को निर्धारित करने के लिए वर्ण बनाएं।  और उस वर्ण के अन्तर्गत आने वाले सभी नियमों एवं कर्मो को उस वर्ण का धर्म बताया। ईश्वर ने जो भी वर्ण बनाये वो विश्व के किसी भी राष्ट्र व् समुदाय की प्रगति के लिए सदैव उपयुक्त है। और जो अपने वर्ण के अनुसार निर्धारित नियमों कर्मों का संपूर्ण निष्ठा, परिश्रम , संयम एवं भक्ति से निर्वाह करता है वह अपने मनुष्य जीवन को सार्थक करता है और मोक्ष को प्राप्त करता है। 

क्योंकि जब आप अपने धर्म को दोष रहित हो कर पूर्ण करते है। तो ये आपके अंतर् में शांति का उत्सर्जन करता है।  यही मानव की सबसे बड़ी आकांशा है। अगर आपको ऐसा नहीं लगता तो चलिए एक प्रयोग करते हैं 

अपने सिर्फ मिनट निकल कर इस प्रयोग को करे। 

तो अब केवल इतना करना है कि अभी आप अपने जीवन में जो भी कर रहे है, सबसे महत्वपूर्ण।  उसके बारे में सोचे और  प्रश्न करे कि
आप अपने इस कर्म क्यों कर रहे है? और इससे क्या होगा?

जो भी उत्तर मिले उसेक्यों करना है, क्यों चाहिये या उससे क्या होगाके साथ स्वयं से फिर पूछे। 

और इस क्रिया को तब तक दोहराये जब तक आप स्वयं उसके उत्तर देने में असमर्थ हो जाये।  या आपके उत्तर समाप्त हो जाये। जब आप इस क्रिया को सफलता पूर्वक समाप्त कर लेंगे तो जो भी आपका अंतिम उत्तर होगा वो ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य हैं।  

आपको आश्चर्यजनक लगेगा कि आपका अंतिम उत्तरशांति अथवा मन की शान्तिही होगा।  जिसका अर्थ और कुछ नहीं मोक्ष ही है। और यही वो अंतिम लक्ष्य है जिसे मनुष्य को प्राप्त करना है। और ईश्वर ने वर्ण और धर्म को, इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन के रूप में मनुष्य को दिए। 

अब प्रश्न ये उठता है की वो वर्ण कौन से है? और इनका निर्धारण कैसे होता है?

वर्ण: ईश्वरने चार वर्णों का निर्धारण किया
. ब्राह्मण
. क्षत्रिय
. वैश्य
. शूद्र

निर्धारण:उपरोक्त चारों वर्णों का निर्धारण कभी भी मनुष्य के जन्मानुसार नहीं होता अपितु उसके गुणों  एवं कर्मों द्वारा निर्धारित किये जाते है।
उपरोक्त वर्णों का अर्थ यह कभी नहीं होता के कोई किसी से निम्न है या वो अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ नहीं है। इनमे सभी अपने वर्ण के अनुसार निर्धारित धर्मो का पालन करते हुए मोक्ष को प्राप्त कर सकते है।

अब प्रश्न ये उठता है कि ये व्यवस्था आधुनिक जीवन में कितनी प्रासंगिक है?
मैं अपनी समझ के अनुसार इस व्यवस्था को पूर्णतः प्रासंगिक मानता हूं आइए इसको ऐसे समझते है।

इसको समझने के लिए, आज के कुछ व्यवसायिक श्रेणियों को इन में रख के देखते है।

. ब्राह्मण: वैज्ञानिक, शिक्षक, चिकित्सक इत्यादि
. क्षत्रिय: सैनिक, पुलिस इत्यादि
. वैश्य: व्यवसाई, कृषक, कलाकार इत्यादि
. शूद्र : श्रमिक, कार्यबल, इत्यादि एवम् वो सभी जो उपरोक्त वर्णों का , उनके धर्मो को पूरा करने में सहयोग करते है। 

अब आपको इससे समझ आएगा कि वर्ण में कहीं भी ऊंच या नीच की बात नहीं करता है। और यह आपके जन्म से सिद्ध भी नहीं होता। परन्तु मानव की समस्या ही यही है कि वह चाहता है कि अगर मैं डॉक्टर हूं तो मेरा पुत्र या पुत्री भी डॉक्टर बने। हम उसके गुणों और कर्मो पर ध्यान नहीं देते। और उन्हें किसी और वर्ण में बाल पूर्वक डालने का प्रयास करते है। जो सदैव उनके जीवन में अशांति और हीन भावना को जन्म देता है और उन्हें सर्वोत्तम प्रकार से उनके धर्म के पालन करने में बाधा उत्पन्न करता हैं। जिससे ना तो वो स्वयं लक्ष्य प्राप्त कर पाते है और ना हि राष्ट्र की उन्नति में ही हितकर हो पाते है।  

अगर हम ध्यान देंगे तो मानव उपरोक्त किसी भी वर्ण का भाग बन के अंतिम लक्ष्य की सरलता से प्राप्त कर सकेगा। जो उसकी स्वयं की उन्नति एवम् राष्ट्र की उन्नति में भी सहयोगी होगा।

परन्तु मानव कि सीमित समझ एवम् सोच ही धर्म की गलत व्याख्या देते हुए वर्ण को जाति में परिवर्तित कर देती है। और एक मानव  एवम् सम्पूर्ण राष्ट्र में असंतोष का कारण बना देती है। जिससे कोई भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता।

और यदि हम ध्यान दें तो ये चार वर्ण किसी भी राष्ट्र को उसके उच्चतम स्तर पर ले जाने में सक्षम हैं। यदि सभी अपने धर्म का पालन कर रहे है तो।

सार : ऊपर कहीं गई बात का तात्पर्य यह है कि यदि हमें मानव का और राष्ट्र का विकास एवम् परम लक्ष्य की प्राप्ति करनी है तो हमें प्रत्येक को उसके गुण, तथा कर्मो को ध्यान में रख कर उसके सही वर्ण का चुनाव तथा उसमे पारंगत होने में उसकी सहायता करनी चाहिए। किसी को निम्न, उच्च नहीं समझना चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो उस समाज के सभी मनुष्य उच्च कोटि के होंगे वो चाहे किसी भी वर्ण के हो। ये व्यवस्था जातिवाद को पूर्णतः समाप्त करने और समभाव का विकास भी करेगी।
परन्तु यह उत्तरदायित्व माता, पिता गुरु का सबसे अधिक है। इसीलिए इन तीनों को ईश्वर का ही रूप कहा जाता है। क्योंकि ये तीनों ही किसी समाज एवम् राष्ट्र की नींव को रखते है। यही धर्म  है।

मैने अपनी बुद्धि स्तर और समझ के अनुसार धर्म को समझने का प्रयास किया है।

मैं आप सभी से यही अनुरोध करूंगा कि ऊपर कहीं गई बात पर ध्यान दे और यदि आप सहमत नहीं है तो अपना तर्क कॉमेंट्स में अवश्य दे।

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लेख़क - विनीत कुमार सारस्वत 

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